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Friday 23 November 2012

"काश! जानवरों सा जज्बा हमारे भीतर भी होता" (डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


      सन् 1979, बनबसा जिला-नैनीताल का वाकया है। उन दिनों मेरा निवास वहीं पर था । मेरे घर के सामने रिजर्व कैनाल फौरेस्ट का साल का जंगल था। उन पर काले मुँह के लंगूर बहुत रहते थे। मैंने काले रंग का भोटिया नस्ल का कुत्ता पाला हुआ था। उसका नाम टॉमी था। जो मेरे परिवार का एक वफादार सदस्य था। मेरे घर के आस-पास सूअर अक्सर आ जाते थे। जिन्हें टॉमी खदेड़ दिया करता था । 
       एक दिन दोपहर में 2-3 सूअर उसे सामने के कैनाल के जंगल में दिखाई दिये। वह उन पर झपट पड़ा और उसने लपक कर एक सूअर का कान पकड़ लिया। सूअर काफी बड़ा और तगड़ा था । वह भागने लगा तो टॉमी उसके साथ घिसटने लगा। अब टॉमी ने सूअर का कान पकड़े-पकड़े अपने अगले पाँव साल के पेड़ में टिका लिए। 
      ऊपर साल के पेड़ पर बैठा लंगूर यह देख रहा था। उससे सूअर की यह दुर्दशा देखी नही जा रही थी । वह जल्दी से पेड़ से नीचे उतरा और उसने टॉमी को एक जोरदार चाँटा रसीद कर दिया और सूअर को कुत्ते से मुक्त करा दिया। हमारे भी आस-पास बहुत सी ऐसी घटनाएँ आये दिन घटती रहती हैं परन्तु हम उनसे आँखे चुरा लेते हैं और हमारी मानवता मर जाती है। 
     काश! जानवरों सा जज्बा हमारे भीतर भी होता।

Monday 12 November 2012

"तम मिटाने को, दिवाली आ गयी है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

!! शुभ-दीपावली !!
 
तम अमावस का मिटाने को,
दिवाली आ गयी है।
दीपकों की रोशनी सबके,
दिलों को भा गयी है।।

जगमगाते खूबसूरत, 
लग रहे नन्हें दिये,
लग रहा जैसे सितारे ही, 
धरा पर आ गये,
झोंपड़ी महलों के जैसी,
मुस्कराहट पा गयी है।
दीपकों की रोशनी सबके,
दिलों को भा गयी है।।

भवन की दीवार को, 
बेनूर बारिश ने करा था,
गाँव के कच्चे घरों का, 
नूर भी इसने हरा था,
रंग-लेपन से सभी में,
अब सजावट छा गयी है।
दीपकों की रोशनी सबके,
दिलों को भा गयी है।।

छँट गया सारा अन्धेरा, 
पास का परिवेश का,
किन्तु अपनों ने किया, 
बदहाल भारत देश का,
प्यार जैसे शब्द को भी तो,
दिखावट खा गयी है।
दीपकों की रोशनी सबके,
दिलों को भा गयी है।।

Saturday 3 November 2012

"दीपक जलायें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

!! शुभ-दीपावली !!
रोशनी का पर्व है, दीपक जलायें।
नीड़ को नव-ज्योतियों से जगमगायें।।

बातियाँ नन्हें दियों की कह रहीं,
तन जलाकर वेदना को सह रहीं,
तम मिटाकर, हम उजाले को दिखायें।
नीड़ को नव-ज्योतियों से जगमगायें।।

डूबते को एक तृण का है सहारा,
ज़िन्दगी को अन्न के कण ने उबारा,
धरा में धन-धान्य को फसलें उगायें।
नीड़ को नव-ज्योतियों से जगमगायें।।

जेब में ज़र है नही तो क्या दिवाली,
मालखाना माल बिन होता है खाली,
किस तरह दावा उदर की वो बुझायें। 
नीड़ को नव-ज्योतियों से जगमगायें।।

बाँटकर मिलकर सभी खाना मिठाई, 
दीप घर-घर में जलाना आज भाई,
रोज सब घर रोशनी में झिलमिलायें।
नीड़ को नव-ज्योतियों से जगमगायें।।