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Monday 31 December 2012

"सुबह हुई और शाम हई" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

ग़म की रखवाली करते-करते ही उम्र तमाम हुई।
पहरेदारी करते-करते सुबह हुई और शाम हई।।

सुख आये थे संग में रहने.
डाँट-डपट कर भगा दिया,
जाने अनजाने में हमने,
घर में ताला लगा लिया,
पवन-बसन्ती दरवाजों में, आने में नाकाम हुई।
पहरेदारी करते-करते सुबह हुई और शाम हई।।

मन के सुमन चहकने में है,
अभी बहुत है देर पड़ी,
गुलशन महकाने को कलियाँ,
कोसों-मीलों दूर खड़ीं,
हठधर्मी के कारण सारी आशाएँ हलकान हुई।
पहरेदारी करते-करते सुबह हुई और शाम हई।।

चाल-ढाल है वही पुरानी,
हम तो उसी हाल में हैं,
जैसे गये साल में थे,
वैसे ही नये साल में हैं,
गुमनामी के अंधियारों में, खुशहाली परवान हुई।
पहरेदारी करते-करते सुबह हुई और शाम हई।।