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Sunday 26 May 2013

" गुलमोहर का, “रूप” सबको भा रहा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

हो गया मौसम गरम,
सूरज अनल बरसा रहा।
गुलमोहर के पादपों का,
रूपसबको भा रहा।।

दर्द-औ-ग़म अपना छुपा,
हँसते रहो हर हाल में,
धैर्य मत खोना कभी,
विपरीत काल-कराल में,
चहकता कोमल सुमन,
सन्देश देता जा रहा।
गुलमोहर के पादपों का,
रूपसबको भा रहा।।

घूमता है चक्र, दुख के बाद,
 सुख भी आयेगा,
कुछ दिनों के बाद बादल,
नेह भी बरसायेगा,
ग्रीष्म ही तरबूज, ककड़ी
और खीरे ला रहा।
गुलमोहर के पादपों का,
रूपसबको भा रहा।।

सर्दियों के बाद तरु,
पत्ते पुराने छोड़ता,
गर्मियों के वास्ते,
नवपल्लवों को ओढ़ता,
पथिक को छाया मिले,
छप्पर अनोखा छा रहा।
 गुलमोहर के पादपों का,
रूपसबको भा रहा।।