सूरज आग उगलता जाता।
नभ में घन का पता न पाता।१।
जन-जीवन है अकुलाया सा,
कोमल पौधा मुर्झाया सा,
सूखा सम्बन्धों का नाता।
नभ में घन का पता न पाता।२।
सूख रहे हैं बाँध सरोवर,
धूप निगलती आज धरोहर,
रूठ गया है आज विधाता।
नभ में घन का पता न पाता।३।
दादुर जल बिन बहुत उदासा,
चिल्लाता है चातक प्यासा,
थक कर चूर हुआ उद्गाता।
नभ में घन का पता न पाता।४।
बहता तन से बहुत पसीना,
जिसने सारा सुख है छीना,
गर्मी से तन-मन अकुलाता।
नभ में घन का पता न पाता।५।
खेतों में पड़ गयी दरारें,
कब आयेंगी नेह फुहारें,
“रूप” न ऐसा हमको भाता।
नभ में घन का पता न पाता।६।
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Monday, 29 August 2016
गीत "सूरज आग उगलता जाता" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
Saturday, 14 May 2016
गीत "अमलतास खिलता-मुस्काता" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
लोगो को राहत पहँचाता।।
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अमलतास खिलता-मुस्काता।।
डाली-डाली पर हैं पहने
झूमर से सोने के गहने,
पीले फूलों के गजरों का,
रूप सभी के मन को भाता।
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अमलतास खिलता-मुस्काता।।
दूभर हो जाता है जीना,
तन से बहता बहुत पसीना,
शीतल छाया में सुस्ताने,
पथिक तुम्हारे नीचे आता।
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अमलतास खिलता-मुस्काता।।
स्टेशन पर सड़क किनारे,
तन पर पीताम्बर को धारे,
दुख सहकर, सुख बाँटो सबको,
सीख सभी को यह सिखलाता।
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अमलतास खिलता-मुस्काता।।
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Sunday, 22 November 2015
"हार नहीं मानूँगा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
![]() जब तक तन में प्राण रहेगा, हार नहीं माँनूगा। कर्तव्यों के बदले में, अधिकार नहीं माँगूगा।।
टिक-टिक करती घड़ी, सूर्य-चन्दा चलते रहते हैं,
अपने मन की कथा-व्यथा को, कभी नहीं कहते हैं,
बिना वजह मैं कभी किसी से, रार नहीं ठाँनूगा।
कर्तव्यों के बदले में, अधिकार नहीं माँगूगा।।
जीवन के भवसागर से, नौका को पार लगाना है,
श्रम करके जीविका कमाना, सीधा पथ अपनाना है,
भोले-भाले, असहायों पर, शस्त्र नहीं ताँनूगा।
कर्तव्यों के बदले में, अधिकार नहीं माँगूगा।।
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जन्मभूमि के लिए जियूँगा, इसके लिए मरूँगा,
आन-बान के लिए देश की, अर्पण प्राण करूँगा,
मर्यादा की सीमा को, मैं कभी नहीं लाँघूगा।
कर्तव्यों के बदले में, अधिकार नहीं माँगूगा।।
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हार नहीं मानूँगा
Sunday, 27 September 2015
गीत "काले दाग़ बहुत गहरे हैं" ( डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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रंग-रंगीली इस दुनिया में, झंझावात बहुत गहरे हैं।
कीचड़ वाले तालाबों में, खिलते हुए कमल पसरे हैं।।
पल-दो पल का होता यौवन,
नहीं पता कितना है जीवन,
जीवन की आपाधापी में, झंझावात बहुत उभरे हैं।
कीचड़ वाले तालाबों में, खिलते हुए कमल पसरे हैं।।
सागर का पानी खारा है,
नदिया की मीठी धारा है,
बंजारों का नहीं ठिकाना, एक जगह वो कब ठहरे हैं।
कीचड़ वाले तालाबों में, खिलते हुए कमल पसरे हैं।।
शासक बने आज व्यापारी,
प्रीत-रीत में है मक्कारी,
छिपे हुए उजले लिबास में, काले दाग़ बहुत गहरे हैं।
कीचड़ वाले तालाबों में, खिलते हुए कमल पसरे हैं।।
मानवता का “रूप” घिनौना,
हुआ आदमी का का कद बौना,
दूध-दही के भण्डारों पर, बिल्ले ही देते पहरे हैं।
कीचड़ वाले तालाबों में, खिलते हुए कमल पसरे हैं।।
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Saturday, 30 May 2015
"कलम के मुसाफिर कहीं सो न जाना!" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
![]() चमक और दमक में, कहीं खो न जाना! कलम के मुसाफिर, कहीं सो न जाना! जलाना पड़ेगा तुझे, दीप जगमग, दिखाना पड़ेगा जगत को सही मग, तुझे सभ्यता की, अलख है जगाना!! कलम के मुसाफिर, कहीं सो न जाना! सिक्कों की खातिर कलम बेचना मत, कलम में छिपी है ज़माने की ताकत, भटके हुओं को सही पथ दिखाना! कलम के मुसाफिर, कहीं सो न जाना! झूठों की करना कभी मत हिमायत, अमानत में करना कभी मत ख़यानत, हकीकत से अपना न दामन बचाना! कलम के मुसाफिर, कहीं सो न जाना! |
Friday, 24 April 2015
"गीत सुनाती माटी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गीत सुनाती माटी अपने, गौरव और गुमान की।
दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।।
खेतों में उगता है सोना, इधर-उधर क्यों झाँक रहे?
भिक्षुक बनकर हाथ पसारे, अम्बर को क्यों ताँक रहे?
आज जरूरत धरती माँ को, बेटों के श्रमदान की।
दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।।
हरियाली के चन्दन वन में, कंकरीट के जंगल क्यों?
मानवता के मैदानों में, दावनता के दंगल क्यों?
कहाँ खो गयी साड़ी-धोती, भारत के परिधान की।
दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।।
टोपी-पगड़ी, चोटी-बिन्दी, हमने अब बिसराई क्यों?
अपने घर में अपनी हिन्दी, सहमी सी सकुचाई क्यों?
कहाँ गयी पहचान हमारे, पुरखों के अभिमान की।
दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।।
कहाँ गया ईमान हमारा, कहाँ गया भाई-चारा?
कट्टरपन्थी में होता, क्यों मानवता का बँटवारा?
मूरत लुप्त हो गयी अब तो, अपने विमल-वितान की।।
दशा सुधारो अब तो लोगों, अपने हिन्दुस्तान की।।
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गीत सुनाती माटी
Thursday, 5 March 2015
“बरफी-लड्डू के चित्र देखकर, अपने मन को बहलाते हैं” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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