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Thursday, 10 October 2013

"चाँद और रात" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

विरह की अग्नि में दग्ध क्यों हो निशा, 
क्यों सँवारे हुए अपना श्रृंगार हो।
क्यों सजाए हैं नयनों में सुन्दर सपन, 
किसको देने चली आज उपहार हो।

क्यों अमावस में आशा लगाए हो तुम,
चन्द्रमा बन्द है आज तो जेल में।
तुम सितारों से अपना सजा लो चमन,
आ न पायेगा वो आज तो खेल में।

एक दिन तो महीने में धीरज धरो,
कल मैं कारा से उन्मुक्त हो जाऊँगा।
चाँदनी फिर से चमकाउँगा रात में,
प्यार में प्रीत में मस्त हो जाउँगा।

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