जमाना है तिजारत का, तिज़ारत ही तिज़ारत है
तिज़ारत में सियासत है, सियासत में तिज़ारत है
ज़माना अब नहीं, ईमानदारी का सचाई का
खनक को देखते ही, हो गया ईमान ग़ारत है
हुनर बाज़ार में बिकता, इल्म की बोलियाँ लगतीं
वजीरों का वतन है ये, दलालों का ही भारत है
प्रजा के तन्त्र में कोई, नहीं सुनता प्रजा की है
दिखाने को लिखी मोटे हरफ में बस इबारत है
हवा का एक झोंका ही धराशायी बना देगा
खड़ी है खोखली बुनियाद पर ऊँची इमारत है
लगा है घुन नशेमन में, फक़त अब “रूप” है बाकी
लगी अन्धों की महफिल है, औ’ कानों की सदारत है
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Thursday, 25 July 2013
"तिज़ारत ही तिज़ारत है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वाह बहुत खूब !
ReplyDeleteसब के मन में यही कसक है......सुंदर गज़ल के लिए बधाई !
ReplyDeleteलगी अन्धों की महफिल है, औ’ कानों की सदारत है ...बहुत खूब ... यही स्थिति है ..
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