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Monday, 15 July 2013

‘‘झंझावातों में।’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मानव दानव बन बैठा है, जग के झंझावातों में।
दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।।

होड़ लगी आगे बढ़ने की, मची हुई आपा-धापी,
मुख में राम बगल में चाकू, मनवा है कितना पापी,
दिवस-रैन उलझा रहता है, घातों में प्रतिघातों में।
दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।।

जीने का अन्दाज जगत में, कितना नया निराला है,
ठोकर पर ठोकर खाकर भी, खुद को नही संभाला है,
ज्ञान-पुंज से ध्यान हटाकर, लिपटा गन्दी बातों में।
दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।।

मित्र, पड़ोसी, और भाई, भाई के शोणित का प्यासा,
भूल चुके हैं सीधी-सादी, सम्बन्धों की परिभाषा।
विष के पादप उगे बाग में, जहर भरा है नातों में।
दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।।

एक चमन में रहते-सहते, जटिल-कुटिल मतभेद हुए,
बाँट लिया गुलशन को, लेकिन दूर न मन के भेद हुए,
खेल रहे हैं ग्राहक बन कर, दुष्ट-बणिक के हाथों में।
दिन में डूब गया है सूरज, चन्दा गुम है रातों में।।

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...

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