बाँटता ठण्डक सभी को, चन्द्रमा सा रूप मेरा।
तारकों ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
रश्मियों से प्रेमियों को मैं बुलाता,
चाँदनी से मैं दिलों को हूँ लुभाता,
दीप सा बनकर हमेशा, रात का हरता अन्धेरा।
तारकों ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
मैं मुसाफिर हूँ-विहग हूँ रात का,
संयोग हूँ-खग हूँ, सुहाने साथ का,
भोर होने पर विदा होकर, बुलाता हूँ सवेरा।
तारकों ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
बालपन, यौवन-बुढ़ापे को बताता,
हर अमावस को सदा परलोक जाता,
चार दिन की चाँदनी के बाद, लुट जाता बसेरा।
तारकों ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
रोज ही मैं “रूप” को अपने बदलता,
उम्र को अपनी कला से, नित्य छलता,
लील लेता वक्त, कितना भी रहे मजबूत डेरा।
तारकों ने पास मेरे, बुन लिया घेरा-घनेरा।।
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Thursday, 13 February 2014
"बाँटता ठण्डक सभी को चन्द्रमा सा रूप मेरा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुंदर !
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