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Monday, 29 August 2016

गीत "सूरज आग उगलता जाता" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

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सूरज आग उगलता जाता।
नभ में घन का पता न पाता।१।

जन-जीवन है अकुलाया सा,
कोमल पौधा मुर्झाया सा,
सूखा सम्बन्धों का नाता।
नभ में घन का पता न पाता।२।

सूख रहे हैं बाँध सरोवर,
धूप निगलती आज धरोहर,
रूठ गया है आज विधाता।
नभ में घन का पता न पाता।३।

दादुर जल बिन बहुत उदासा,
चिल्लाता है चातक प्यासा,
थक कर चूर हुआ उद्गाता।
नभ में घन का पता न पाता।४।

बहता तन से बहुत पसीना,
जिसने सारा सुख है छीना,
गर्मी से तन-मन अकुलाता।
नभ में घन का पता न पाता।५।

खेतों में पड़ गयी दरारें,
कब आयेंगी नेह फुहारें,
रूप न ऐसा हमको भाता।
नभ में घन का पता न पाता।६।

3 comments:

  1. अच्छी रचना

    शुभकामनाओं के साथ सदर नमन

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  2. बहुत सुन्दर रचना |

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